गजलें और शायरी >> सरदार जाफ़री और उनकी शायरी सरदार जाफ़री और उनकी शायरीप्रकाश पंडित
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सरदार जाफरी की जिंदगी और उनकी बेहतरीन गजलें, नज्में, शेर और रुबाइयां
Sardar Jafari Aur Unki Shayari
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
उर्दू के लोकप्रिय शायर
वर्षों पहले नागरी लिपि में उर्दू की चुनी हुई शायरी के संकलन प्रकाशित कर राजपाल एण्ड सन्ज़ ने पुस्तक प्रकाशन की दुनिया में एक नया कदम उठाया था। उर्दू लिपि न जानने वाले लेकिन शायरी को पसंद करने वाले अनगिनत लोगों के लिए यह एक बड़ी नियामत साबित हुआ और सभी ने इससे बहुत लाभ उठाया।
ज्यादातर संकलन उर्दू के सुप्रसिद्ध सम्पादक प्रकाश पंडित ने किये हैं। उन्होंने शायर के सम्पूर्ण लेखन से चयन किया है और कठिन शब्दों के अर्थ साथ ही दे दिये हैं। इसी के साथ, शायर के जीवन और कार्य पर-जिनमें से समकालीन उनके परिचित ही थे-बहुत रोचक और चुटीली भूमिकाएं लिखी हैं। ये बोलती तस्वीरें हैं जो सोने में सुहागे का काम करती हैं।
ज्यादातर संकलन उर्दू के सुप्रसिद्ध सम्पादक प्रकाश पंडित ने किये हैं। उन्होंने शायर के सम्पूर्ण लेखन से चयन किया है और कठिन शब्दों के अर्थ साथ ही दे दिये हैं। इसी के साथ, शायर के जीवन और कार्य पर-जिनमें से समकालीन उनके परिचित ही थे-बहुत रोचक और चुटीली भूमिकाएं लिखी हैं। ये बोलती तस्वीरें हैं जो सोने में सुहागे का काम करती हैं।
सरदार जाफ़री
सरदार जाफ़री उर्दू शायरी की महफ़िल में कम्युनिस्ट पार्टी के लाल झंडे और ‘दुनिया के मज़दूरो एक हो जाओ’ के नारे के साथ दाख़िल हुए। पहले तो लोगों ने उन्हें बड़ी तीखी नज़रों से देखा लेकिन शीघ्र ही स्वीकार भी कर लिया। बहुत जल्द उन्होंने उर्दू शायरी की दुनिया में काफी ऊंचा स्थान हासिल कर लिया और उर्दू शायरी को नई ऊंचाइयों पर ले गये। उनके कारण उर्दू शायरी पहले से ज्यादा जानकार और रंगारंग हो उठी।
इश्क़ का नग़्मा जुनूं के साज़ पर गाते हैं हम
अपने ग़म की आँच से पत्थर को पिघलाते हैं हम।
मेरे हाथों में है सूरज का छलकता हुआ जाम
मेरे अशआ़र में है इशरते-फ़र्दा1 का पयाम
अपने ग़म की आँच से पत्थर को पिघलाते हैं हम।
मेरे हाथों में है सूरज का छलकता हुआ जाम
मेरे अशआ़र में है इशरते-फ़र्दा1 का पयाम
ईसा पूर्व 347 में यूनान के सर्वविख्यात वैज्ञानिक और दार्शनिक अफ़लातून (Plato) ने अपने काल्पनिक प्रजातंत्र राज्य में से कवियों को इसलिए निकाल दिया था कि उसके विचार में ‘कविता वास्तविकता की प्रतिकृति है और वह भी तीसरी श्रेणी की। क्योंकि असल वास्तविकता की प्रतिकृति यह संसार है और उसकी प्रतिकृति यह कविता।’
अठारहवीं शताब्दी के उर्दू के सर्वप्रथम जन-कवि ‘नज़ीर’ अकबराबादी को बाज़ारू और अश्लील शायर कहकर 19वीं शताब्दी के प्रसिद्ध उर्दू साहित्यकार मोहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’ ने उसे शायरी के सिंहासन पर बिठाने से इन्कार कर दिया था।
और इस बीसवीं सदी में भी आज से दस-बारह वर्ष पूर्व उर्दू के प्रसिद्ध व्यंग्य-लेखक कन्हैयालाल कपूर ने अपने एक हास्य-व्यंग्य लेख में स्वर्गीय ‘हाली’ (उर्दू के प्रथम सुधारवादी शायर और लेखक) को नये सिरे से जीवित दिखाकर उससे प्रगतिशील शायरों का परिचय कराते हुए लिखा था कि जब ‘मजाज़’ लखनवी और सरदार जाफ़री ने (कपूर ने इनके उपनाम बिगाड़कर लिखे थे) उस भरी महफिल में प्रवेश किया तो उनके कंधों पर लाल झंडे थे और वे बाक़ायदा मार्च करते और गाते आ रहे थे :
‘मज़दूर हैं हम, मज़दूर हैं हम !’
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1.सुनहरे भविष्य का संदेश
कपूर के कथनानुसार ‘हाली’ ने बड़े आश्चर्य से उन नवागन्तुकों की ओर देखा और बौखलाकर कहा, ‘‘आप अगर मज़दूर हैं तो जाइये, जाकर कहीं मज़दूरी कीजिए, यहां शायरों की महफ़िल में आपका क्या काम !’’
लेकिन होता यह है कि स्वयं अफ़लातून का शिष्य अरस्तू (Aristotle) अपने गुरु के काव्य-सम्बन्धी विचारों की अवहेलना करता है और कविता या साहित्य को मानव-जीवन को समझने और उसे सुन्दर बनाने के लिए आवश्यक बल्कि अनिवार्य सिद्ध करता है।
उन्नीसवीं सदी में जिस शायर को मेले-ठेलों, त्योहारों और घरेलू घटनाओं को सीधे-सीधे ढंग से व्यक्त करने के अपराध में अश्लील और बाज़ारू कहा गया और यह भविष्यवाणी हुई कि उसकी शायरी को कभी अमरत्व प्राप्त नहीं होगा, आज उसी ‘नज़ीर’ अकबराबादी की शायरी के बिना उर्दू साहित्य का इतिहास अपूर्ण नज़र आता है और हमें उसे अपना पूर्वज शायर कहकर बड़े गौरव का अनुभव होता है। बल्कि डाक्टर फ़ेलन ऐसा अंग्रेज़ आलोचक तो यहां तक कह देता है कि ‘‘नज़ीर’ ही उर्दू का वह एकमात्र शायर है (अपने काल का) जिसकी शायरी योरुप वालों के काव्य-स्तर के अनुसार सच्ची शायरी है।’’
और गुस्ताख़ी मुआफ़, कन्हैयालाल कपूर के जीवन-काल में ही, बल्कि उसकी राय (व्यंग्य ही सही) के केवल दस-बारह वर्ष बाद, सरदार जाफ़री शेरो-अदब की किसी महफ़िल से निकाले जाने की बजाय उस महफ़िल का जीवन बल्कि आत्मा नज़र आता है।
और ऊपर के उदाहरण इस धारणा को सुदृढ़ करने में हमारी सहायता करते हैं कि शायर कोई अलौकिक जीव नहीं होता कि जिस पर जीवन के परिवर्तनशील मूल्यों का कोई प्रभाव ही नहीं होता और जो अपने काल की परिस्थितियों से दामन बचाकर जीवित रह सके। बल्कि शायर का दिल बड़ा भावुक और उसकी नज़र बड़ी दूरगामी होती है। वह केवल अतीत और वर्तमान की ही ओर नहीं देखता, उसकी दृष्टि भविष्य पर भी पड़ती है और मानव-विकास का बोध उसे मनुष्य के भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए तत्पर और संघर्षशील करता है। लेकिन उसके पास परिवर्तन लाने का साधन चूंकि शायरी होता है इसलिए स्वयं सरदार जाफ़री के कथनानुसार ‘‘वह न तो कुल्हाड़ी की तरह पेड़ काट सकता है और न इन्सानी हाथों की तरह मिट्टी से प्याले बना सकता है। वह पत्थर से बुत नहीं तराशता, बल्कि जज़्बात और अहसासात की नई-नई तस्वीरें बनाता है। वह पहले इन्सान के जज़्बात पर असर-अंदाज़ होता है और इस तरह उसमें दाख़ली (अंतरंग) तबदीली पैदा करता है और फिर उस इन्सान के ज़रिये से माहौल (वातावरण) और समाज को तबदील करता है।
शायर और शायरी की इस परिभाषा को यदि ठीक मान लिया जाए तो सरदार जाफ़री और उसकी शायरी दोनों इस पर बिल्कुल पूरे उतरते हैं। मानव-विकास को समझने, जीवन के मिटते हुए मूल्यों का भेद पा लेने, प्रगतिशील शक्तियों से अपना सीधा सम्बन्ध स्थापित करने और अपनी कलात्मक ज़िम्मेदारी का पूरी तरह अनुभव कर लेने के बाद जब उसने शायरी के मैदान में क़दम रखा और जो कुछ उसे कहना था बड़े स्पष्ट स्वर में कहने लगा तो शायरी की रूढ़िगत परम्पराओं के उपासकों का बौखला उठना ठीक उसी प्रकार आवश्यक था जिस प्रकार की ‘आज़ाद’ को ‘नज़ीर’ के यहां बाज़ारूपन और अश्लीलता नज़र आई थी। लेकिन आज चूंकि जीवन की गति अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी से कहीं तेज़ है और मानव-बोध पहले से कहीं आगे निकल चुका है, इसलिए सरदार जाफरी को और उसी की तरह सोचने वाले अन्य प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी शायरों को अपनी बात ग्राह्म और प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी, और चूंकि सरदार जाफ़री का राजनैतिक बोध और काव्य-उद्भावना बड़े सन्तुलित ढंग से एक-दूसरे से घुल-मिल चुके हैं और उसे घटनाओं और परिस्थितियों को शायरी के सांचे में ढालकर दिल में उतारने की क्षमता प्राप्त है, इसलिए हम देखते हैं कि जिन विचारों को वह नज़्म करता है वे सीधे हमारे मस्तिष्क को छूते हैं और हमारे भीतर जो स्थायी चुभन और तड़प, वेग और प्रेरणा उत्पन्न करते हैं, उनसे न केवल हमें जीवन को समझने में सहायता मिलती है बल्कि हमारे भीतर बेहतर भविष्य के संग्राम में योग देने की भावना जाग उठती है।
आधुनिक उर्दू शायर का यह साहसी शायर, जो शान्ति और भाईचारे के प्रचार और परतंत्रता, युद्ध और साम्राजी हथकंडों पर कुठाराघात करने के अपराध में परतंत्र भारत में भी कई बार जेल जा चुका है और स्वतंत्र भारत में भी, 29 नवम्बर, 1913 को बलरामपुर ज़िला गोंडा (अवध) में पैदा हुआ। घर का वातावरण उत्तर-प्रदेश के मध्यवर्गीय मुस्लिम घरानों की तरह ख़ालिस मज़हबी था, और चूकिं ऐसे घरानों में ‘अनीस’ के मर्सियों को वही महत्व प्राप्त है जो हिन्दू घरानों में गीता के श्लोकों और रामायण की चौपाइयों को, अतएव अली सरदार जाफ़री पर भी घर के मज़हबी और इस नाते अदबी (साहित्यिक) वातावरण का गहरा प्रभाव पड़ा और अपनी छोटी-सी आयु में ही उसने मर्सिये (शोक-काव्य) कहने शुरू कर दिये और 1933 ई. तक बराबर मर्सिये कहता रहा। उसका उन दिनों का एक शेर देखिये :
अठारहवीं शताब्दी के उर्दू के सर्वप्रथम जन-कवि ‘नज़ीर’ अकबराबादी को बाज़ारू और अश्लील शायर कहकर 19वीं शताब्दी के प्रसिद्ध उर्दू साहित्यकार मोहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’ ने उसे शायरी के सिंहासन पर बिठाने से इन्कार कर दिया था।
और इस बीसवीं सदी में भी आज से दस-बारह वर्ष पूर्व उर्दू के प्रसिद्ध व्यंग्य-लेखक कन्हैयालाल कपूर ने अपने एक हास्य-व्यंग्य लेख में स्वर्गीय ‘हाली’ (उर्दू के प्रथम सुधारवादी शायर और लेखक) को नये सिरे से जीवित दिखाकर उससे प्रगतिशील शायरों का परिचय कराते हुए लिखा था कि जब ‘मजाज़’ लखनवी और सरदार जाफ़री ने (कपूर ने इनके उपनाम बिगाड़कर लिखे थे) उस भरी महफिल में प्रवेश किया तो उनके कंधों पर लाल झंडे थे और वे बाक़ायदा मार्च करते और गाते आ रहे थे :
‘मज़दूर हैं हम, मज़दूर हैं हम !’
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1.सुनहरे भविष्य का संदेश
कपूर के कथनानुसार ‘हाली’ ने बड़े आश्चर्य से उन नवागन्तुकों की ओर देखा और बौखलाकर कहा, ‘‘आप अगर मज़दूर हैं तो जाइये, जाकर कहीं मज़दूरी कीजिए, यहां शायरों की महफ़िल में आपका क्या काम !’’
लेकिन होता यह है कि स्वयं अफ़लातून का शिष्य अरस्तू (Aristotle) अपने गुरु के काव्य-सम्बन्धी विचारों की अवहेलना करता है और कविता या साहित्य को मानव-जीवन को समझने और उसे सुन्दर बनाने के लिए आवश्यक बल्कि अनिवार्य सिद्ध करता है।
उन्नीसवीं सदी में जिस शायर को मेले-ठेलों, त्योहारों और घरेलू घटनाओं को सीधे-सीधे ढंग से व्यक्त करने के अपराध में अश्लील और बाज़ारू कहा गया और यह भविष्यवाणी हुई कि उसकी शायरी को कभी अमरत्व प्राप्त नहीं होगा, आज उसी ‘नज़ीर’ अकबराबादी की शायरी के बिना उर्दू साहित्य का इतिहास अपूर्ण नज़र आता है और हमें उसे अपना पूर्वज शायर कहकर बड़े गौरव का अनुभव होता है। बल्कि डाक्टर फ़ेलन ऐसा अंग्रेज़ आलोचक तो यहां तक कह देता है कि ‘‘नज़ीर’ ही उर्दू का वह एकमात्र शायर है (अपने काल का) जिसकी शायरी योरुप वालों के काव्य-स्तर के अनुसार सच्ची शायरी है।’’
और गुस्ताख़ी मुआफ़, कन्हैयालाल कपूर के जीवन-काल में ही, बल्कि उसकी राय (व्यंग्य ही सही) के केवल दस-बारह वर्ष बाद, सरदार जाफ़री शेरो-अदब की किसी महफ़िल से निकाले जाने की बजाय उस महफ़िल का जीवन बल्कि आत्मा नज़र आता है।
और ऊपर के उदाहरण इस धारणा को सुदृढ़ करने में हमारी सहायता करते हैं कि शायर कोई अलौकिक जीव नहीं होता कि जिस पर जीवन के परिवर्तनशील मूल्यों का कोई प्रभाव ही नहीं होता और जो अपने काल की परिस्थितियों से दामन बचाकर जीवित रह सके। बल्कि शायर का दिल बड़ा भावुक और उसकी नज़र बड़ी दूरगामी होती है। वह केवल अतीत और वर्तमान की ही ओर नहीं देखता, उसकी दृष्टि भविष्य पर भी पड़ती है और मानव-विकास का बोध उसे मनुष्य के भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए तत्पर और संघर्षशील करता है। लेकिन उसके पास परिवर्तन लाने का साधन चूंकि शायरी होता है इसलिए स्वयं सरदार जाफ़री के कथनानुसार ‘‘वह न तो कुल्हाड़ी की तरह पेड़ काट सकता है और न इन्सानी हाथों की तरह मिट्टी से प्याले बना सकता है। वह पत्थर से बुत नहीं तराशता, बल्कि जज़्बात और अहसासात की नई-नई तस्वीरें बनाता है। वह पहले इन्सान के जज़्बात पर असर-अंदाज़ होता है और इस तरह उसमें दाख़ली (अंतरंग) तबदीली पैदा करता है और फिर उस इन्सान के ज़रिये से माहौल (वातावरण) और समाज को तबदील करता है।
शायर और शायरी की इस परिभाषा को यदि ठीक मान लिया जाए तो सरदार जाफ़री और उसकी शायरी दोनों इस पर बिल्कुल पूरे उतरते हैं। मानव-विकास को समझने, जीवन के मिटते हुए मूल्यों का भेद पा लेने, प्रगतिशील शक्तियों से अपना सीधा सम्बन्ध स्थापित करने और अपनी कलात्मक ज़िम्मेदारी का पूरी तरह अनुभव कर लेने के बाद जब उसने शायरी के मैदान में क़दम रखा और जो कुछ उसे कहना था बड़े स्पष्ट स्वर में कहने लगा तो शायरी की रूढ़िगत परम्पराओं के उपासकों का बौखला उठना ठीक उसी प्रकार आवश्यक था जिस प्रकार की ‘आज़ाद’ को ‘नज़ीर’ के यहां बाज़ारूपन और अश्लीलता नज़र आई थी। लेकिन आज चूंकि जीवन की गति अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी से कहीं तेज़ है और मानव-बोध पहले से कहीं आगे निकल चुका है, इसलिए सरदार जाफरी को और उसी की तरह सोचने वाले अन्य प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी शायरों को अपनी बात ग्राह्म और प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी, और चूंकि सरदार जाफ़री का राजनैतिक बोध और काव्य-उद्भावना बड़े सन्तुलित ढंग से एक-दूसरे से घुल-मिल चुके हैं और उसे घटनाओं और परिस्थितियों को शायरी के सांचे में ढालकर दिल में उतारने की क्षमता प्राप्त है, इसलिए हम देखते हैं कि जिन विचारों को वह नज़्म करता है वे सीधे हमारे मस्तिष्क को छूते हैं और हमारे भीतर जो स्थायी चुभन और तड़प, वेग और प्रेरणा उत्पन्न करते हैं, उनसे न केवल हमें जीवन को समझने में सहायता मिलती है बल्कि हमारे भीतर बेहतर भविष्य के संग्राम में योग देने की भावना जाग उठती है।
आधुनिक उर्दू शायर का यह साहसी शायर, जो शान्ति और भाईचारे के प्रचार और परतंत्रता, युद्ध और साम्राजी हथकंडों पर कुठाराघात करने के अपराध में परतंत्र भारत में भी कई बार जेल जा चुका है और स्वतंत्र भारत में भी, 29 नवम्बर, 1913 को बलरामपुर ज़िला गोंडा (अवध) में पैदा हुआ। घर का वातावरण उत्तर-प्रदेश के मध्यवर्गीय मुस्लिम घरानों की तरह ख़ालिस मज़हबी था, और चूकिं ऐसे घरानों में ‘अनीस’ के मर्सियों को वही महत्व प्राप्त है जो हिन्दू घरानों में गीता के श्लोकों और रामायण की चौपाइयों को, अतएव अली सरदार जाफ़री पर भी घर के मज़हबी और इस नाते अदबी (साहित्यिक) वातावरण का गहरा प्रभाव पड़ा और अपनी छोटी-सी आयु में ही उसने मर्सिये (शोक-काव्य) कहने शुरू कर दिये और 1933 ई. तक बराबर मर्सिये कहता रहा। उसका उन दिनों का एक शेर देखिये :
अर्श तक ओस के क़तरों की चमक जाने लगी।
चली ठंडी जो हवा तारों को नींद आने लगी।।
चली ठंडी जो हवा तारों को नींद आने लगी।।
लेकिन बलरामपुर से हाई स्कूल की परीक्षा पास करके जब वह उच्च शिक्षा के लिए मुस्लिम युनिवर्सिटी अलीगढ़ पहुँचा तो वहाँ उसे अख्तर हुसैन रायपुरी, सिब्ते-हसन, जज़्वी, मजाज, जां निसार ‘अख्तर’ और ख्वाजा अहमद अब्बास ऐसे लेखक साथी मिले और वह विद्यार्थियों के आन्दोलनों में भाग लेने लगा। फिर विद्यार्थी की एक हड़ताल (वायसराय की एग्जै़क्टिव कौंसल के सदस्यों के विरुद्ध जो अलीगढ़ आया करते थे) कराने के सम्बन्ध में युनिवर्सिटी से निकाल दिया गया तो उस की शायरी का रुख़ आप-ही-आप मर्सियों से राजनैतिक नज़्मों की ओर मुड़ गया। ऐंग्लो-एरेबिक कालेज देहली से बी.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. करने के बाद जब वह बम्बई पहुँचा और कम्युनिस्ट पार्टी का सक्रिय सदस्य बना और फिर उसे बार-बार जेल-यात्रा का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो उसकी शायरी ने ऐसे पर-पुर्ज़े निकाले और उसकी ख्याति का वह युग प्रारंभ हुआ कि प्रतिक्रियावादियों को कौन कहे स्वयं प्रगतिशील लेखक भी दंग रह गये।
उसके समस्त कविता-संग्रहों परवाज़ नई दुनिया को सलाम’, ‘खून की लकीर’, ‘अमन का सितारा’, ‘एशिया जाग उठा’ और ‘पत्थर की दीवार’ का अध्ययन करने से जो चीज़ बड़े स्पष्ट रूप में हमारे सामने आती है और जिसमें हमें सरदार की कलात्मक महानता का पता चलता है, वह यह है कि उसे मानवता के भव्य भविष्य का पूरा-पूरा भरोसा है। ऐतिहासिक बोध और सामाजिक अनुभवों से उसने यह भेद पा लिया है कि संसार में व्यक्तियों और वर्गों की पराजय तो हो सकती है और होगी, लेकिन मनुष्य अजेय है। विश्व-इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जब मनुष्य की पराजय हुई हो; और चूँकि उसका परिश्रम उसके अपने बोध का ही नहीं बहुत हद तक उसके वातावरण का भी स्रष्टा होता है, इसलिए सदैव सफल और विजयी रहेगा; और यही कारण है कि हमें सरदार जाफ़री के यहाँ किसी प्रकार की निराशा, थकन, अविश्वास और करुणा का चित्रण नहीं मिलता, बल्कि उसकी शायरी हमारे मन में नई-नई उमंगें जगाती है और हम शायर की सूझ-बूझ और उसके आशावाद से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। कुछ शेर देखिये :
उसके समस्त कविता-संग्रहों परवाज़ नई दुनिया को सलाम’, ‘खून की लकीर’, ‘अमन का सितारा’, ‘एशिया जाग उठा’ और ‘पत्थर की दीवार’ का अध्ययन करने से जो चीज़ बड़े स्पष्ट रूप में हमारे सामने आती है और जिसमें हमें सरदार की कलात्मक महानता का पता चलता है, वह यह है कि उसे मानवता के भव्य भविष्य का पूरा-पूरा भरोसा है। ऐतिहासिक बोध और सामाजिक अनुभवों से उसने यह भेद पा लिया है कि संसार में व्यक्तियों और वर्गों की पराजय तो हो सकती है और होगी, लेकिन मनुष्य अजेय है। विश्व-इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जब मनुष्य की पराजय हुई हो; और चूँकि उसका परिश्रम उसके अपने बोध का ही नहीं बहुत हद तक उसके वातावरण का भी स्रष्टा होता है, इसलिए सदैव सफल और विजयी रहेगा; और यही कारण है कि हमें सरदार जाफ़री के यहाँ किसी प्रकार की निराशा, थकन, अविश्वास और करुणा का चित्रण नहीं मिलता, बल्कि उसकी शायरी हमारे मन में नई-नई उमंगें जगाती है और हम शायर की सूझ-बूझ और उसके आशावाद से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। कुछ शेर देखिये :
गो मेरे सिर पे सियह1 रात की परछाईं है,
मेरे हाथों में है सूरज का छलकता हुआ जाम।
मेरे अफ़कार2 में है तल्ख़ी-ए-इमरोज़3 मगर,
मेरे अशआ़र में4 है इश्रते-फ़र्दा का5 पयाम।
मेरे हाथों में है सूरज का छलकता हुआ जाम।
मेरे अफ़कार2 में है तल्ख़ी-ए-इमरोज़3 मगर,
मेरे अशआ़र में4 है इश्रते-फ़र्दा का5 पयाम।
और
सिर्फ़ इक मिटती हुई दुनिया का नज़्ज़ारा न कर,
आलमे-तख़्लीक़ में6 है इक जहां ये भी तो देख।
मैंने माना मरहले हैं सख्त राहें हैं दराज7,
मिल गया है अपनी मंज़िल का निशाँ ये भी तो देख।।
आलमे-तख़्लीक़ में6 है इक जहां ये भी तो देख।
मैंने माना मरहले हैं सख्त राहें हैं दराज7,
मिल गया है अपनी मंज़िल का निशाँ ये भी तो देख।।
यहाँ तक कि उसकी रोमांटिक नज़्मों में भी संघर्षशीलता
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1.काली 2.चिंतन में 3.आज की कटुता 4.शेरों में 5.भविष्य के सुख का 6.निर्माण की अवस्था में 7.लम्बी
की वही भावना रची बसी है जो उसकी राजनैतिक और क्रान्तिकारी नज़्मों में हमें मिलती है। उसकी नज़्म ‘इन्तज़ार न कर’ का एक टुकड़ा देखिये :
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1.काली 2.चिंतन में 3.आज की कटुता 4.शेरों में 5.भविष्य के सुख का 6.निर्माण की अवस्था में 7.लम्बी
की वही भावना रची बसी है जो उसकी राजनैतिक और क्रान्तिकारी नज़्मों में हमें मिलती है। उसकी नज़्म ‘इन्तज़ार न कर’ का एक टुकड़ा देखिये :
मैं तुझको भूल गया उसका एतबार न कर,
मगर खुदा के लिए मेरा इन्तज़ार न कर !
अजब घड़ी है मैं इस वक्त आ नहीं सकता,
सरूरे-इश्क़1 की दुनिया बसा नहीं सकता,
मैं तेरे साज़े-मोहब्बत पे गा नहीं सकता,
मैं तेरे प्यार के क़ाबिल नहीं हूं प्यार न कर,
न कर ख़ुदा के लिए मेरा इन्तज़ार न कर !
मगर खुदा के लिए मेरा इन्तज़ार न कर !
अजब घड़ी है मैं इस वक्त आ नहीं सकता,
सरूरे-इश्क़1 की दुनिया बसा नहीं सकता,
मैं तेरे साज़े-मोहब्बत पे गा नहीं सकता,
मैं तेरे प्यार के क़ाबिल नहीं हूं प्यार न कर,
न कर ख़ुदा के लिए मेरा इन्तज़ार न कर !
जाफ़री की शायरी की आयु लगभग वही है जो भारत में ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की। लेखक संघ का यह ज़माना भारत के अतिरिक्त संसार-भर में अशान्ति का ज़माना रहा है। एक ओर भारत अंग्रेजी साम्राज्य की ज़ंजीरों से मुक्त होने के लिए हाथ-पैर मार रहा था तो दूसरी ओर साम्राजी शक्तियां अपने ख़ूनी जबड़े खोले नये-नये देश निगलने को लपक रही थीं। एक ओर दूसरे महायुद्ध के भयानक परिणाम संसार को आर्थिक संकट की लपेट में ले रहे थे और चारों ओर बेकारी और बेरोज़गारी का भूत दनदना रहा था तो दूसरी ओर रूस की साम्यवादी जीवन-व्यवस्था मनुष्य-मात्र के कल्याण के लिए मंज़िलों पर मंज़िलें मार रही थीं और सारी दुनिया के श्रमजीवी उस जीवन-व्यवस्था से प्रभावित हो रहे थे। फिर भारत का विभाजन हुआ और लाखों व्यक्ति धर्म
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1.प्रेम की नशे की
के नाम पर कट मरे। और आज फिर पूरी दुनिया तीसरे महायुद्ध के भय से कपकपा रही है। इस प्रकार की राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में किसी दयानतदार शायर या लेखक के लिए चुप रहना या अपना कोई अलग काल्पनिक संसार बसा लेना किसी प्रकार संभव न था, अतएव सरदार जाफ़री ऐसे मानव-प्रेमी शायर ने प्रत्येक अवसर पर न केवल अपनी मानव-मित्रता की मशाल जलाई बल्कि मानव-शत्रुओं के विरुद्ध अपनी पवित्र घृणा भी प्रकट की। बग़ावत, फ़रेब, तलंगाना, सैलाबे-चीन, जश्ने-बग़ावत इत्यादि नज़्मों के शीर्षक देखने भर से पता चल जाता है कि शायर की उंगली हर समय बदलती हुई राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों की नब्ज़ पर रही है और उसकी समूची शायरी के अध्ययन से यह वास्तविकता खुलकर सामने आ जाती है कि उसने केवल परिस्थितियों की नब्ज़ सुनने तक ही स्वयं को सीमित नहीं रखा बल्कि उन धड़कनों के साथ-साथ उसका अपना दिल भी धड़कता रहा है। लेकिन इन्हीं कारणों से कुछ आलोचकों की राय यह भी है कि अधिकतर सामायिक विषयों पर शेर कहने के कारण सरदार जाफ़री की शायरी भी सामयिक है और नई परिस्थितियां उत्पन्न होते ही उसका महत्व कम हो जाएगा। एक हद तक मैं भी उन साहित्यकारों से सहमत हूं लेकिन सरदार जाफ़री के इस कथन को एकदम झुठलाने का भी मैं साहस नहीं कर पाता जिसमें वह स्वयं अपनी शायरी को सामयिक स्वीकार करते हुए कहता है कि ‘‘हर शायर की शायरी वक़्ती (सामयिक) होती है। मुमकिन है कि कोई और इसे न माने लेकिन मैं अपनी जगह यही समझता हूँ। अगर हम अगले वक़्तों के राग अलापेंगे तो बेसुरे हो जायेंगे। आने वाले ज़माने का राग जो भी होगा, वह आने वाली नस्ल गायेंगी। हम तो आज ही का राग छेड़ सकते हैं।
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1.प्रेम की नशे की
के नाम पर कट मरे। और आज फिर पूरी दुनिया तीसरे महायुद्ध के भय से कपकपा रही है। इस प्रकार की राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में किसी दयानतदार शायर या लेखक के लिए चुप रहना या अपना कोई अलग काल्पनिक संसार बसा लेना किसी प्रकार संभव न था, अतएव सरदार जाफ़री ऐसे मानव-प्रेमी शायर ने प्रत्येक अवसर पर न केवल अपनी मानव-मित्रता की मशाल जलाई बल्कि मानव-शत्रुओं के विरुद्ध अपनी पवित्र घृणा भी प्रकट की। बग़ावत, फ़रेब, तलंगाना, सैलाबे-चीन, जश्ने-बग़ावत इत्यादि नज़्मों के शीर्षक देखने भर से पता चल जाता है कि शायर की उंगली हर समय बदलती हुई राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों की नब्ज़ पर रही है और उसकी समूची शायरी के अध्ययन से यह वास्तविकता खुलकर सामने आ जाती है कि उसने केवल परिस्थितियों की नब्ज़ सुनने तक ही स्वयं को सीमित नहीं रखा बल्कि उन धड़कनों के साथ-साथ उसका अपना दिल भी धड़कता रहा है। लेकिन इन्हीं कारणों से कुछ आलोचकों की राय यह भी है कि अधिकतर सामायिक विषयों पर शेर कहने के कारण सरदार जाफ़री की शायरी भी सामयिक है और नई परिस्थितियां उत्पन्न होते ही उसका महत्व कम हो जाएगा। एक हद तक मैं भी उन साहित्यकारों से सहमत हूं लेकिन सरदार जाफ़री के इस कथन को एकदम झुठलाने का भी मैं साहस नहीं कर पाता जिसमें वह स्वयं अपनी शायरी को सामयिक स्वीकार करते हुए कहता है कि ‘‘हर शायर की शायरी वक़्ती (सामयिक) होती है। मुमकिन है कि कोई और इसे न माने लेकिन मैं अपनी जगह यही समझता हूँ। अगर हम अगले वक़्तों के राग अलापेंगे तो बेसुरे हो जायेंगे। आने वाले ज़माने का राग जो भी होगा, वह आने वाली नस्ल गायेंगी। हम तो आज ही का राग छेड़ सकते हैं।
(पत्थर की दीवार की भूमिका से)
लेकिन इसके साथ ही जब वह अपनी यानी शायर की विशेषता इन शब्दों में जताता है कि :
मैं हूँ सदियों का तफ़क्कुर1 मैं हूं क़र्नों का2 ख़्याल,
मैं हूं हमआग़ोश अज़ल से3 मैं अबद से हमकिनार4।
मेरे नग़्मे क़ैदे-माहो-साल से5 आज़ाद हैं,
मेरे हाथों में है लाफ़ानी6 तमन्ना का सितार।
नक़्शे-मायूसी में7 भर देता हूं उम्मीदों का रंग,
मैं अ़ता8 करता हूं शाख़े-आरजूं9 को बर्गो-बार10।
चुन लिए हैं बाग़े-इन्सानी से अरमानों के फूल,
जो महकते ही रहेंगे मैंने गूँथे हैं वो हार।
आ़र्ज़ी1 जलवों को दी है ताबिशे-हुस्ने-दवाम12।
मेरी नज़रों में है रोशन आदमी की रहगुज़ार13।
मैं हूं हमआग़ोश अज़ल से3 मैं अबद से हमकिनार4।
मेरे नग़्मे क़ैदे-माहो-साल से5 आज़ाद हैं,
मेरे हाथों में है लाफ़ानी6 तमन्ना का सितार।
नक़्शे-मायूसी में7 भर देता हूं उम्मीदों का रंग,
मैं अ़ता8 करता हूं शाख़े-आरजूं9 को बर्गो-बार10।
चुन लिए हैं बाग़े-इन्सानी से अरमानों के फूल,
जो महकते ही रहेंगे मैंने गूँथे हैं वो हार।
आ़र्ज़ी1 जलवों को दी है ताबिशे-हुस्ने-दवाम12।
मेरी नज़रों में है रोशन आदमी की रहगुज़ार13।
और उसके इस दावे पर हम उसकी शायरी को परखते हैं तो और जो भी परिणाम निकालें, यह बात हमें अवश्य विदित हो जाती है कि वह किसी एक जाति, किसी एक वर्ग या किसी एक दल का शायर नहीं, समूची मानवता का शायर है और उसकी शायरी इतिहास के बदलते हुए मूल्यों की द्योतक है।
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1.मनन 2. सदियों का 3. आदि काल को अपने बाहुपाश में लिए हुए 4. अन्त काल के गले मिला हुआ 5. वर्षों और महीनों की क़ैद से 6. अमर 7. निराशा के रेखा-चित्र में 8. प्रदान आकांक्षा रुपी टहनी को 10. फल-फूल 11. अस्थायी 12. अमर सुन्दरता की चमक 13. पथ
अब कुछ शब्दों में सरदार जाफ़री की काव्य-कला के बारे में भी कहना चाहता हूं क्योंकि कुछ लोगों के ख़याल में सरदार जाफ़री जब भावावेश में होता है तो कला के नियत तक़ाज़ों पर से उसकी नज़र उचट जाती है। यह दुरुस्त है कि उसकी कुछ प्रारंभिक नज़्मों की कुछ पंक्तियों का ढीलापन कानों को खटखता है और कुछ स्थानों पर उसका स्वर काव्यात्मक कम और भाषणात्मक अधिक हो गया है।1 लेकिन सामूहिक रूप से उसकी शायरी कला के तमाम गुणों-लक्षणों को अपने दामन में लिये हुए है। उसके यहां रूप और विषय का ऐसा सुन्दर समन्वय है कि उर्दू साहित्य की परम्पराओं में अच्छी तरह रची-बसी होने पर भी हमें उसकी शायरी बिल्कुल नई मालूम होती है। इस पर उसने उर्दू शायरी को जो नई उपमायें और रूपक दिये हैं और मुक्त छन्द की टैक्नीक को सँवारा-निखारा है, उससे आधुनिक उर्दू शायरी की विशालता एवं उसके क्षेत्र में वृद्धि भी हुई है और वह रंगारंग भी हो उठी है। अपनी उपमाओं और रुपकों के नयेपन के बारे में स्वयं जाफ़री का कहना है कि :
‘‘पुरानी तश्बीह और इस्तआ़रे (उपमा और रुपक) एक
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1.‘इक़बाल’ और ‘जोश’ से प्रभावित होने के कारण या विषय-विशेष के कारण। क्योंकि सरदार जाफ़री के कथनानुसार रूप या आकार विषय पर आश्रित हैं। उसका कहना है कि ‘हैयत (रूप या आकार) का हुस्न बहुत ज़रूरी है लेकिन हैयत मौज़ू के बग़ैर कोई तसव्वुर (कल्पना) नहीं किया जा सकता और चूँकि इन्सान बग़ैर तस्वीरों और अल्फ़ाज़ (शब्दों) के कुछ सोच नहीं सकता इसलिए मौज़ू अपनी हैयत साथ लेकर आता है। शायर का तजुर्बा और मश्क (अभ्यास) उस हैसियत को अपनी सलाहियतों (क्षमताओं) से और ज़्यादा ख़ूबसूरत बना सकता है।’’
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1.मनन 2. सदियों का 3. आदि काल को अपने बाहुपाश में लिए हुए 4. अन्त काल के गले मिला हुआ 5. वर्षों और महीनों की क़ैद से 6. अमर 7. निराशा के रेखा-चित्र में 8. प्रदान आकांक्षा रुपी टहनी को 10. फल-फूल 11. अस्थायी 12. अमर सुन्दरता की चमक 13. पथ
अब कुछ शब्दों में सरदार जाफ़री की काव्य-कला के बारे में भी कहना चाहता हूं क्योंकि कुछ लोगों के ख़याल में सरदार जाफ़री जब भावावेश में होता है तो कला के नियत तक़ाज़ों पर से उसकी नज़र उचट जाती है। यह दुरुस्त है कि उसकी कुछ प्रारंभिक नज़्मों की कुछ पंक्तियों का ढीलापन कानों को खटखता है और कुछ स्थानों पर उसका स्वर काव्यात्मक कम और भाषणात्मक अधिक हो गया है।1 लेकिन सामूहिक रूप से उसकी शायरी कला के तमाम गुणों-लक्षणों को अपने दामन में लिये हुए है। उसके यहां रूप और विषय का ऐसा सुन्दर समन्वय है कि उर्दू साहित्य की परम्पराओं में अच्छी तरह रची-बसी होने पर भी हमें उसकी शायरी बिल्कुल नई मालूम होती है। इस पर उसने उर्दू शायरी को जो नई उपमायें और रूपक दिये हैं और मुक्त छन्द की टैक्नीक को सँवारा-निखारा है, उससे आधुनिक उर्दू शायरी की विशालता एवं उसके क्षेत्र में वृद्धि भी हुई है और वह रंगारंग भी हो उठी है। अपनी उपमाओं और रुपकों के नयेपन के बारे में स्वयं जाफ़री का कहना है कि :
‘‘पुरानी तश्बीह और इस्तआ़रे (उपमा और रुपक) एक
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1.‘इक़बाल’ और ‘जोश’ से प्रभावित होने के कारण या विषय-विशेष के कारण। क्योंकि सरदार जाफ़री के कथनानुसार रूप या आकार विषय पर आश्रित हैं। उसका कहना है कि ‘हैयत (रूप या आकार) का हुस्न बहुत ज़रूरी है लेकिन हैयत मौज़ू के बग़ैर कोई तसव्वुर (कल्पना) नहीं किया जा सकता और चूँकि इन्सान बग़ैर तस्वीरों और अल्फ़ाज़ (शब्दों) के कुछ सोच नहीं सकता इसलिए मौज़ू अपनी हैयत साथ लेकर आता है। शायर का तजुर्बा और मश्क (अभ्यास) उस हैसियत को अपनी सलाहियतों (क्षमताओं) से और ज़्यादा ख़ूबसूरत बना सकता है।’’
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